Friday, December 30, 2011

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था....
सरे बस ये रात क्या हुआ...
मेरी आँख कैसे छलक गयी...
मुझे रंज है इस बात का   ....!!!!!

Sunday, November 6, 2011

पीछे मुड़कर देखा तो....

महीनो बाद आज मेरे ज़हन में आया कि अब बहुत हो गया कुछ लिखना चाहिए वरना अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति जिसपे मुझे थोड़ा नाज़ है उससे हाथ धो बैठूंगी... बस क्या था जब देखा की सब अपने अपने काम में व्यस्त हैं... मैंने सोचा कि चलो आज अपनी कलम कि नीव पे जो स्याह परत बैठी है उसे उतार दूँ.... अब बात आई कि लिखने तो मैं बैठ गयी लेकिन लिखूं क्या....फिर अचानक नीलेश मिश्रा का यादों का idiot  बॉक्स प्रोग्राम याद आया... सोचा क्यूँ न मैं भी कुछ वैसा ही लिखने की कोशिश करूँ....


        ऐसा पहली बार हुआ है सत्रह अठरह सालों में
        कोई आये जाए मेरे ख्यालों में.....

समय के साथ लोगों की सोच बदली और उसके साथ बदले गाने और उन गानों का मतलब ..... सुमित सुबह सुबह इस गाने को गुनगुनाते हुए अपने घर में घूम रहा था... तब शायद उसे ये भी न पता था कि ये प्यार किस बाला का नाम है... बस जी गाना था बिलकुल लेटेस्ट था तो वो गा रहा था.... अचानक उसे याद आया कि इस गाने के चक्कर में वो कॉलेज के लिए लेट हो रहा है... उसने दौड़ते भागते हुए अपने सारे काम ख़त्म किए और लगभग उससे भी दोगुनी रफ़्तार से सीढियों से नीचे उतरते हुए अपनी माँ को चिल्ला कर कहता है- माँ मैं कॉलेज जा रहा हूँ लौटते हुए निगम के घर जाना होगा तो लेट हो जाऊँगा... दरअसल उसके चिल्लाने का मकसद ही कुछ और था .... वो अपने पापा से बहुत ज्यादा डरता था... उनसे सामने पूछने कि हिम्मत न थी तो उन्हें सुनाते हुए जल्दी से भाग गया......
                  गलत ना तुम थे ना हम थे.....
                  खता इस उम्र की देहलीज़ की थी.... 
पता नहीं ये अक्सर हर घर में देखा जाता है कि बेटा अपने बाप के पास जाने से डरता है... उससे हर बात करने से डरता है... माँ का क्या है उसे तो अपने बच्चों कि हर बात ही अच्छी लगती है.... हाँ तो हम यहाँ थे ... सुमित जल्दी से अपने डे प्लान सुनाता हुआ घर से निकल आया... इससे पहले की पापा की तरफ से ना जाने का फरमान जारी किया जाता.... गाते से बहार आते ही उसने राहत की सांस ली की बेटा अब बच गये.... bike निकाली और लगभग उड़ाते हुए कॉलेज पहुच गया....
                  यूँ हवा से बात करना अच्छा लगता है....
                   मुझे दिन रात करना अच्छा लगता है.....

सुमित कॉलेज के सेकंड इयर में पढता था, दरअसल आज ही उसके सेकंड इयर की पहली क्लास थी.... उसके excitement  की उससे भी बड़ी वजह ये थी कि आज उसके जुनिअर्स आने वाले थे... उसे आज अपने फर्स्ट इयर का पहला दिन याद आ रहा था ... जब उसके seniors  ने उसकी ragging  ली थी.... आज उसका दिन था ... आज उसके सामने कई नए चेहरे होने वाले थे जिनकी ragging उसे लेनी थी... कॉलेज पंहुचा अपनी bike  लागायी और दौड़ के पहुंचा कैंटीन की तरफ... जहाँ उसके friends उसके इंतज़ार कर रहे थे.... वहां बहुत ज्यादा भीड़ थी... उसे समझ में आ गया कि उसके शिकार पहले ही वहां आ पहुचे हैं... उसने और उसके दोस्तों ने 
नए बच्चों की जमकर क्लास ली... तभी उस भीड़ में उसे १ घबरायी सी शक्ल दिखी.... उसने उसे आवाज़ दी.... वो आगे आई.....  उसने उसकी सुरमेदार आँखों में देखा...
                        आज तक ज़ब्त था जो कहीं दिल में...
                        उसकी एक निगाह ने मरहूम कर डाला...
                        बेमुर्रव्वत है वो पलकें ज़ालिम....
                        जो लुटने के बाद भी बंद ना हुई....
 सुमित को तो होश भी नहीं था कि वो कुछ पूछने लायक ही ना बचा.... जब उसने किसी और जवाब में बताया कि उसका नाम श्रुति है तब जाके उसे होश आया... वरना उसे तो पता ही ना था कि वो कहाँ  गुम हो गया था... बेल हुई और सब अपनी अपनी क्लास कि ओर बढे... डिजाईन की क्लास में हमेशा से इंटेरेस्ट लेने वाला सुमित पता नहीं आज कहाँ खोया था... कॉलेज ख़त्म हुआ और वो अपने घर की तरफ निकल पड़ा... सुबह घर से चिल्ला के निगम के घर जाने का फैसला सुनाने वाला सुमित घर की तरफ निकल आया... घर पंहुचा तो माँ ने पूछा जल्दी घर कैसे आ गया ??? वो क्या जवाब देता... उसे तो खुद ही पता ना था... वो मुड़ गया अपने कमरे की तरफ...

आजकल सुमित रोज़ ही junior विंग के चक्कर लगाने लगा है... कभी किसी बहाने से तो कभी किसी बहाने से.... बस जाने का कारण १ ही है.... श्रुति भी इस बात को अच्छे से समझने लगी थी .... सुमित एक दिन अपने दोस्तों के साथ खड़ा था ... तभी वहां से वो गुजरी... उसके दोस्तों ने उसे रोक लिया और कहा कि १ गाना सुनाओ... और उसने बिना रुके १ नगमा सुनाया....
                                मुझसे मिलने के वो करता था बहाने कितने...
                                 अब गुजारेगा मेरे साथ वो ज़माने कितने....
                                मैं गिरा था तो बहुत लोग रुके थे लेकिन....
                                सोचता हूँ मुझे आये थे उठाने कितने....
                                अब गुजारेगा मेरे साथ वो ज़माने कितने....
                                जिस तरह मैंने तुझे अपना बना रखा है....
                                 सोचते होंगे ये बात ना जाने कितने....   
                                 अब गुजारेगा मेरे साथ वो ज़माने कितने....
                                तुम नया ज़ख्म लगाओ तुम्हें इससे क्या है...
                                भरने वाले हैं अभी ज़ख्म पुराने कितने... 
                                अब गुजारेगा मेरे साथ वो ज़माने कितने....
                                मुझसे मिलने के वो करता था बहाने कितने...  

सुमित को अचानक लगा कि जैसे उसे अब सांस लेने में मुश्किल हो रही है... श्रुति सब समझ चुकी थी.... वो वहां से भाग गया.... अगले दिन कॉलेज आया तो श्रुति उसके पास आई... कुछ कहा नहीं बस १ कागज़ का टुकड़ा उसे पकड़ा कर चली गयी... उसने उस चिट्ठी को खोला...
                              
                                 माना कि मोहब्बत को छुपाना है मुहब्बत....
                                 तू कभी मोहब्बत जताने के लिए आ... 

आज उनकी पहली डेट थी... जी हाँ सुमित और श्रुति कि डेट... सुमित ने सोचा कि उसके लिए क्या लेकर जाए... फिर उसने उसके लिए तोहफे में  १ खूबसूरत  कलम खरीदी.... उसने वो कलम श्रुति को दी.....

                                 लाया वो मेरे लिए स्याही लाल...
                                 तोहफे के पैगाम ने मुझे लाल कर दिया... 

इस तरह दो साल बीत गए और सुमित कॉलेज से निकल गया... उसकी नौकरी १ अच्छे firm  में लग गयी... वो खुश था .. बहुत खुश... लेकिन वहाँ कोई था जिसे इस खबर से ख़ुशी तो हुई लेकिन दिल का १ कोना सिसक भी रहा था.... सुमित ने उसे समझाया था... पागल अगले साल तुम्हारी पढ़ाई ख़त्म होतेही हम इस लायक हो जाएंगे कि हम शादी कर सकें... तुम बस पढ़ाई में मन लगाओ... बाकी तो हम हर वीकेंड पर मिलते ही रहेंगे... वो हँसी .. एक फीकी मुस्कान ... लेकिन आज उस चेहरे पर वो रौनक नहीं थी.... उन आँखों में वो नूर दूर दूर तक नहीं था...
                          गुम ए जुदाई है बहुत मुश्किल...
                          काश कि ये भी बचपना होता...
                          १ खिलौने से बहल जाता ये दिल....
                          इसमें ना ज़ब्त कोई गम पुराना होता....

दिन बीतते गए.... सुमित अब busy  रहने लगा था .... ऑफिस के काम के बाद खुद के लिए वक़्त निकालना भी तो मुश्किल हो रहा था... फिर उसे उसकी पढ़ाई ख़त्म होने तक अच्छे से settle  भी तो होना था.... इस भागमभाग में उसे उससे मिलने का वक़्त नहीं मिल पाता था... श्रुति को लगा कि सुमित बदल गया है... उसे बस कॉलेज तक उसकी ज़रूरत थी.... अब उसे शायद ऑफिस की किसी लड़की से मोहब्बत हो गयी है...

                              मर भी जाऐं मुहब्बत में तो 
                              काफिर ही कहलाएंगे....
                              जीना तो चाहते हैं मगर....
                              जीने का एहसास तो हो...

पता ही ना चला कब १ साल बीत गया... आज श्रुति का एक्ज़ाम ख़त्म हो गया.... वो १ प्यारा सा फूलों का bouquet लिए कॉलेज के गेट पर खड़ा था... इस इंतज़ार में कि कब वो आएगी और वो उसे खुशखबरी सुनाएगा... वो आई... उसके चेहरे पर आज भी वही मासूमियत थी... आज भी आँखों में वही नूर था... हाँ वो बिलकुल वैसी ही थी... वो उससे उसी मुस्कराहट के साथ मिली.....
लेकिन ये क्या... आज उसके कंधे पर हाथ रख कर चलने वाले हाथ बदल गए थे.... ये तो उसके हाथ नहीं थे श्रुति के कंधे पर... वो लड़का था कौन... उसने श्रुति से पूछा...  उसने अपने चेहरे पर अजीब सी मुस्कुराहट सजाते हुए कह... तुम ये हक खो चुके हो सुमित..... वैसे आज तुमने ये पूछ लिया है सुनो... ये मेरा fiance है... मैंने तुम्हारा बहुत इंतज़ार किया लेकिन तुम नहीं आये... तुम्हें याद है वो पेन जो तुमने मुझे दिया था... तुम्हारे इंतज़ार में मेरा दिल उस लाल स्याही कि तरह खून के आंसू रोया था... लेकिन तुम नहीं आये... पापा ने मुझे इनसे मिलवाया और मेरे पास और कोई भी चारा नहीं था हाँ करने के अलावा... क्यूंकि मैं जिससे प्यार करती थी वो मेरे पास नहीं था....मेरे साथ नहीं था... इतना कह कर वो चली गयी....
उसके जाते ही सुमित आज दूसरी बार नींद से जगा था... पहली बार जब उसने श्रुति को पहली बार देखा हा और आज जब वो उसे हमेशा के लिए छोड़ कर चली गयी थी... उसने कहने का मौक़ा भी नहीं दिया कि उसने श्रुति के लिए घर ख़रीदा है जहाँ वो शादी करके रहने वाले थे...और तो और उसने अपने हिटलर बाप को भी मना लिया था उनकी शादी के लिए... कुछ नहीं कह पाया वो कुछ भी नहीं.....
                    
                                आज बीती बातों को सोच कर दिल हँसता है...
                                 वो पल आज भी मेरे दिल में आशना हैं....
                                तेरी भीगी पलकों पे रुका वो मोती याद है...
                                 शीशे कि तरह उतरता तेरा हर लफ्ज़ याद है....

अपनी खिड़की से बाहर बर्फ से घिरा हुआ मंज़र देख कर उसे बर्फ सी ठंडी से यादें ज़र्द कर गयी... मुक़र्रर तो वो कभी ना था...  मसलाहट भी कोई और ना मिली.... आज उस बात को दस साल बीत गए... लेकिन आज भी वो ज़ख्म उतने ही गहरे हैं... आज भी वो खुद को काम में मशरूफ रखता है .. लेकिन ऑफिस बंद होने कि वजह से उसे अपने यादों कि पोटली को खोलने का मौका मिल गया.....

                                     यादों का सफ़र खोलो तो ...
                                     कुछ लोग याद आ जाते हैं....
                                     कभी मिले या ना मिले....
                                     कुछ दर्द छोड़ जाते हैं.... !!!!!


                                
                                                                        

Monday, October 31, 2011

सहर....

चाहिए एक नयी ज़मीन
 जहाँ न कुछ भी पुराना हो...
न कोई भी डर रहे
  न कोई गम पुराना हो...
काश इस काली स्याही को
 हकीक़त की मुहर मिल जाए...
अब थक चुकी हूँ मैं
 इस शाम को नयी सहर मिल जाए... ... !!!!

Sunday, October 16, 2011

बहुत दिनों बाद आज मैं कुछ लिखने बैठी...
मालूम हुआ कि मेरी सोच को दीमक लग चुका है...
कुछ नया ख्याल ज़हन में नहीं आता अब...
कोरा कागज़ भी निकाल जीभ मेरी बेबसी पे चिढ़ा रहा है.... ...!!!!!
 

Friday, October 7, 2011

हम तेरे शहर में आये थे नूर लेकर...
तेरी बेनियाज़ी ने हमें बेनूर कर दिया...
फ़ख्र करते थे कभी अपनी जिंदादिली पर...
उस नाज़ को तुने हर दम चूर-चूर कर दिया.....!!!!!

Tuesday, October 4, 2011

आज फिर तुझे तन्हाई ही प्यारी है...
इन गलियारों कदम रखा तोह ऐसा लगा.....!!! 

Friday, September 30, 2011

आज बहुत दिनों बाद ये शिकायत हुई...
सबने माना  कि हमें फिर से मुहब्बत हुई....

Thursday, September 15, 2011

चंद लम्हों के लिए
तुम ये सिक्के ज़ाया न करो
मेरे सिरहाने बैठो
मुझे ये पल महफूज़ करने दो 
तस्दीक देते हैं
तन्हाई के मंज़र मगर
कह न पाए कभी
सह न पाएंगे आज जो ये लब चुप रहे 
जानते थे हम
आवारगी पसंद है आदत तेरी
रुक तो जाते
मगर इंसानी रूह थी हावी रही.....

Thursday, September 8, 2011

छोड़ दो मुझे...

 मेरी बात सुनो
वो राह चुनो
जिसमे हम न हो
  कोई गम न  हो
  हम न साथ रहे
   न वो जज़्बात बसें
  मेरी बात सुनो
वो राह चुनो

Thursday, September 1, 2011

  न छेड़ो हमें हम सताए हुए हैं...
 बड़े ज़ख्म सीने पे खाए हुए हैं....!!!!

Saturday, August 20, 2011

आज तो लेकिन हद हो गयी
हम रुके पर कारवां बढ़ता गया....

Friday, August 19, 2011

  काश कि आज वो शहर मिल जाए
 जहाँ स्याह रात के बाद सहर हो जाए.......

Friday, June 24, 2011

राजघाट एक दृश्य...

इस बारे में मेरा लिखने का मन उसी दिन था जिस रोज़ मैं अन्ना हज़ारे द्वारा बाबा रामदेव के समर्थन में चले आन्दोलन में गयी थी, किन्तु समयाभाव में लिख नहीं पायी....यहाँ समयाभाव शब्द का प्रयोग बहुत ही कृत्रिम लग रहा है परन्तु सच माने तो हज़ारे का भ्रष्टाचार मिटाओ मुहिम एक ऐसा विषय है जिसपर हम राह चलते नहीं लिख सकते...और शायद वहां पहुच कर, वहां के दृश्य को अपनी आँखों से देख कर तो यद्यपि शब्द का प्रयोग बिलकुल ही अप्रासंगिक होगा....

चार तारीख़ को रामदेव और उनके समर्थको के ऊपर आधी रात को हुए अत्याचार के विरोध प्रदर्शन में हज़ारे और उनकी सेना राजघाट पर बैठी थी...एक बात पर मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ कि जिन अन्ना ने घंटो बिता दिए बिना कुछ खाए-पिए उन्हें अपने समर्थकों का बहुत ही ख्याल था...बाहर के सैतालीस डिग्री तापमान से अपने बंधुओं को लड़ने की ताक़त  देने के लिए उन्होंने पानी और पंडाल का इंतज़ाम किया था...मुझे सचमुच अन्ना की यह कोशिश बहुत ही अच्छी लगी..यहाँ तक कि उनकी सभा में पुरुषों की लघुशंका को मिटाने की सुविधा भी मुहैय्या करायी गयी थी...अच्छा अब बात करते हैं उस सभा की जिसके बारे में दरअसल मैं लिखने बैठी हूँ....जैसा की मैंने सोचा था उसके अनुरूप लोगों की भीड़ बहुत ही ज्यादा थी...यह एक तरह से मेरे लिए अच्छा भी था क्यूंकि मुझे अपने आफिस द्वारा दिए गए कार्य को अच्छे से और निर्धारित समय में कार्यान्वित करना था....उस भीड़ के बीच बैठे थे हमारे भ्रष्टाचार विरोधी सेनानी हमारे प्यारे अन्ना...और साथ में थे अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण....गौरतलब बात यह थी की इस सेना के मंत्री ही नज़र नहीं आ रहे थे और वो थे हमारे स्वामी अग्निवेश...ख़ैर लोग कई गुटों में बटकर भी अन्ना का समर्थन कर रहे थे...

मुझे यह देख के बहुत ही अच्छा लगा कि वहां बुड्ढे, जवान और मेरे सोच के विपरीत छोटे छोटे बच्चे भी शामिल होने आये थे...अभी तक तो मैंने इस लड़ाई के अच्छे पहलुओं पर बात कर रही थी....लेकिन अब इसके बुरे पहलुओं पर आप सबका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी...वहां पर लोगों कि भीड़ थी इसके बारे में तो मैंने आपको बतलाया और सच मानिए जब बाबा रामदेव्  के उस शिविर के पीड़ित लोगों ने अपनी बात हमारे सामने रखी तो एक आम इंसान कि तरह मेरे रौंगटे भी खड़े हो गए...किसी निहथ्थे और सोते हुए पर वार करना तो आपको कायर की श्रेणी में ही रखता है...ख़ैर मैं यहाँ न्याय की मूर्ति बन खुद को तराजू के साथ खड़ा करने के किसी मन से नहीं आई....क्यूंकि मेरी अपनी मानसिकता मुझे योगगुरु के साथ नहीं खड़ा होने देती किन्तु औरतों के साथ हुए अत्याचार का मैं पुरज़ोर विरोध करती हूँ....राजघाट में पहुची उन औरतों ने जब अपनी जुबानी सुनाई तो मुझे इससे दिल्ली पुलिस की ताक़त नहीं बल्कि उनकी बर्बरता का वो उदाहरण मिला जिसकी पूर्ति गंगा नदी दसों बार इस धरती पर मानव शरीर लेकर उतरकर भी नहीं कर पाएंगी... 

मैं फिर से अपने उपर्युक्त शब्दों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती हूँ की वहां बड़ी तादाद में बुढ्ढे बच्चे और जवान आये हुए थे....लेकिन जहाँ तक मेरी सोच पहुची मुझे लोगों में वैसा कोई आक्रोश नहीं दिखा...आक्रोश तो बहुत ही सुदृढ़ शब्द हो गया, मुझे लोगों में वह कारण ही अकारण अनुपस्थित दिखा जिसकी वजह से वो एक अहिंसा के पुजारी की समाधि पर उपस्थित हुए थे...वह भीड़ मुझे अन्ना के समर्थकों की नहीं अपितु भेड़ियाधसान लगी...सभी लोगों की लगभग एक सी सोच लगी की भैया चलो चलते हैं राजघाट...फरवरी में इनकी सभा में बहुत भीड़ थी तो इस बार हम उनकी भीड़ में पहुच कर उसमें चार चाँद लगा दें...लोग बेशक नारे लगा रहे थे, पोस्टर्स बना के अपना विरोध दर्शा रहे थे, कईयों ने तो खुद को तिरंगे से सजा लिया था....लेकिन यकीन मानिए मुझे हर एक चीज़ मंदिरों में पुजारिओं के आडम्बर से कम नहीं लगी...वहां हर एक चीज़ बहुत ही artificial सी थी...कुछ ऐसे गर्म खून भी थे जिन्होंने संगीत को अपना अस्त्र चुना था और वो वहां बैठ के देशभक्ति गाने गा और बजा रहे थे...और हम प्रेस वाले उन्हें अपने कैमरे में क़ैद कर रहे थे...इतना कुछ लिखने के बाद मैं ही यह भी लिख रही हूँ की मैंने इन सब लोगों को अपने काम का भागीदार बनाया...अजी हम पत्रकार करें तो करे क्या हम भी अपने पेशे के मारे हैं और हमारे प्रेस मालिक commercialisation के...
अब मैं अपने इस लेख को विराम देने का मन बना रही हूँ क्यूंकि रात काफी हो चुकी है और निद्रादेवी मेरे मानसपटल पर बार बार तुषारापात कर रही हैं...लेकिन मैंने एक बात जो राजघाट के दृश्य से सीखी है वो यह की लोगों में जज़्बा है...ताक़त है...और मेरी सोच के विपरीत इंसानियत भी है लेकिन एक जो सबसे बड़ी कमी है वह है अंग्रेजी के concept not clear की दिक्क़त..जिससे पार पाना शीघ्र और अतिशीघ्र अतिआवश्यक है...क्यूंकि अधजल गगरी से पानी छलक के गिरता ही है चाहे हम उसपे कितनी भी ऐतिहात से काम करें... तभी इस देश और इसकी जनता का सर्वोपरि विकास हो पाएगा....और हम सभी परेशानियों पर लंका विजय कर पाएंगे...

Friday, June 10, 2011

पुरानी गली.....

अरसां बीत गए उस गली में आये हुए
आज कदम रखा तो जैसे महसूस हुआ
जुदा था वो मेरे वूजूद के हिस्से से
दबा था वो मेरे दिल के किसी कोने में

वो गली जिससे मेरा बचपन था बीता
उनकी यादें आज भी बेनज़ीर हैं
कभी ये बतलाने की कोशिश न की
आज निकले बरबस आंसुओं ने सब कह दिया

गली की वो मिटटी की भीनी खुशबु
आज भी दिल को खुशनुमा कर रही है
इस ज़मीन पर रखा हुआ हर इक कदम
मेरे दिल पे दस्तक दे इंतिला कर रही है

शाम के वक़्त इस गली में टहलना
बिजली गुल होने पर यहाँ घूमते ही जाना
गली की दोनों तरफ लगी वो दीवार
जहाँ बैठ हर शाम गप्पे लड़ाना

ये यादें आज भी लगती बहुत हसीं हैं
लोगों को लगता ये मेरा दीवानापन है
हँसते हैं वो समझाते भी हैं
कहते हैं अब ये एक पुरानी गली है.......

Wednesday, May 18, 2011

तेरा मेरा साथ........

हमउम्र है मेरा गम और तेरा मेरा साथ .|
ताउम्र लगता है रहेगा ये मेरे हाथ  . . ||





. . . . . . . . . . . .

तेरे आने की ख़बर सच है
इस ख़्वाब को ख़ारिज किया हमने
तेरे शौक़ को अपनाया था कभी
तसब्बुर में तुझे अपना बनाने के लिए
तेरी यादों का सहारा है अभी
पैमाने से उतरी उस जाम के बाद
इन दो घूँट में भी क्या ताक़त है
अकेला छोड़ गयी इक मीठी मुस्कान के साथ............     

Monday, May 16, 2011

क्या लिखूं .........

आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखने का मन हुआ
कागज़ कलम लेकर मैं बैठी इक कोने में
सोचा क्या लिखूं, किस बारे में लिखूं
फिर चाहा आज जो हुआ उसे ही मैं रच दूँ
क्या लिखूं फिर सोच में पड़ गयी मैं
बाहर इतनी  गर्मी है इस बारे में कुछ लिखूं
या चिलचिलाती धुप और इस तपाती गर्मी में
लोग डर के घर में नहीं बैठे इस बारे में लिखूं
पानी वाला सड़क किनारे पानी बेच रहा है
इसके बारे में लिखूं या फिर उसका मन
जो पानी के पास रहते हुए भी प्यासा है, उस बारे में लिखूं
पटरी पर दौड़ती मेट्रो ट्रेन के बारे में लिखूं
या फिर उसके 'रुकावट के लिए खेद है' के इस बोल पर लिखूं
यहाँ हर कोने पर लगी सेल सेल सेल पर लिखूं
या कुर्ती और सलवार के इस मेल पर लिखूं
हर बार की तरह इस बार भी प्यार पर लिखूं
या ज़िन्दगी में हो रही प्यार की दरकार पर लिखूं
आज इक प्यारा खिलौना टूट गया मेरा
लिखूं इसपे, या फिर इस खिलौने पे निकले आंसुओं पर लिखूं
हर तरफ फैल रहे देह के व्यापार पर लिखूं
या फिर इस देह से हो रहे व्यवहार पर लिखूं
अभी तक नहीं समझ पायी किस बारे में लिखूं
क्या अपनी सोच में शब्दों के पड़े अकाल पर लिखूं...............

Monday, May 9, 2011

बेहतरी तेरे आने की ख़बर आ गई...
रुख्सती का हमने था इंतज़ाम कर लिया.......
चाहत तेरी ये नागवार थी हमें.....
तेरी बस इक खामोशी ने हुक्मरां कर दिया......

Thursday, May 5, 2011

stri ki stithi............

यह लेख  मैंने तक़रीबन इक साल पहले लिखी थी, कई बार मन में हुआ कि इसे कहीं छपने के लिए भेजूं किन्तु मन में कहीं इक डर था अगर मेरी यह लेख नहीं छपी तो शायद मेरे अन्दर का लेखक पैदा होने से पहले कहीं समर्पण न कर दे | चूँकि ये लेख मेरे बहुत ही करीब है तो  मेरा यह डर मुझे बेहद जायज़ लगा . कल मैंने NDTV ख़बर औरतों पर लिखे कुछ लेख पढ़े तो हिम्मत हुई अपने  इस लेख  को इन्टरनेट पर समर्पित करने की| फिर सोचा मेरे खुद के ब्लॉग पलछिन  से अच्छी जगह और क्या होगी जो कि हर पल मेरे साथ होता है|आगे आपके लिए है मेरी कहानी आशा है शायद आप तक पहुँच जाए...................


                                                          स्त्री की स्तिथि 

          मैंने अभी हाल में किसी अखबार में पढ़ा की क्या कोई तहखानों में बंद किताबों को कभी भी पढ़ पाया है?क्या औरतों की कहानी भी कुछ ऐसी ही नहीं है? क्या इक औरत की ज़िन्दगी अँधेरे में दफ्न होने के लिए अभिशप्त नहीं है ? औरतों के पास कंठ है पर स्वर नहीं, मस्तिष्क है लेकिन चेतना नहीं| यहाँ पर औरतों की ये स्तिथि है कि उनकी राय हाशिये पर भी उपेक्षित ही मानी जाती है| उन्होंने अँधेरे को अपना सच मान लिया है और उसमे जीने की आदि हो गयी हैं| उजाले की चाहत उनमें बाकी ही नहीं है और उन्हें चतुराई से समझाया भी गया है कि अँधेरा उनकी सुरक्षा और संरक्षण के लिए ज़रूरी है| जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि उनमें चेतना नहीं है इसलिए वो अँधेरे को अपनी नियति मान बैठी हैं|

            कुछ मुद्दे ऐसे भी हैं जहाँ औरत ही औरत के विरुद्ध आवाज़ खड़ी कर रही हैं| वह अपनी स्तिथि में इस प्रकार रम चुकी हैं कि वह इसे ही सत्य और सही मान बैठी हैं| यह बात भी कटु सत्य है कि इक औरत दूसरी औरत को पछाड़ कर कभी भी पुरुष की बराबरी नहीं कर सकती हैं| मेरे ख्याल से बहुत जगहों पर औरत ही हैं  जो पुरुष को भगवान् होने का खिताब देती हैं उसे उन्हें प्रताड़ित करने का हक या फिर कहें तो आमंत्रण देती है| औरत अपनी स्वतंत्रता और गुलामी कि अन्तःभावना के दो ध्रुवों को साथ लाना चाहती है लेकिन साध नहीं पायी कभी भी| ऐसी हरकतें अशिक्षित और पूर्णतः आश्रिता के लिए फिर भी स्वाभाविक है लेकिन शिक्षित उच्च पदस्थ औरतों का ऐसी बर्बरता चुपचाप सहना हैरान करता है और यही समाज ये औरतें विरासत में दे रही हैं अपनी बेटियों को| 
          
           कर्नाटक, तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के इलाकों में तथाकथित छोटी जाति की औरतों के पास वैश्यावृत्ति के अलावा जीवकोपार्जन का और कोई अतिरिक्त साधन नहीं है| उनके माँ-बाप बचपन में ही घर की सुख-शान्ति के लिए उनका विवाह भगवान् से करवा देते है और व्यंगोक्ति तो देखिये प्रभु से हुए विवाह के बाद नाम तो उन्हें देवदासी का दिया जाता है लेकिन वो काम करती हैं वेश्याओं का| बारह साल की उम्र की छोटी लड़किओं को इस मौत के कुएं में धकेल दिया जाता है| उनके बच्चे अपने पिता के साथ खेल नहीं सकते| अत्यंत कारुणिक तो उनकी बेटियों की स्तिथि है, वो कितना भी पढ़-लिख लें उन्हें अंततः उसी धंधे में खुद को झोंकना पड़ता है| कितना मुश्किल होता है इक माँ के लिए न चाहते हुए भी अपनी बेटी को उस रास्ते पर भेजना जहाँ सिर्फ शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक यान्त्रनाएं भी हैं| HOLY WIVES  में इक बच्ची जब माखन लाल चतुर्वेदी की पुष्प की अभिलाषा का पाठ कर रही थी तो मानो लग रहा था वो पुष्प की नहीं वरन उसकी अभिलाषा है  लेकिन उसके पास और कोई रास्ता नहीं है चुनने के लिए  इसके अलावा अगर उसे जीना है तो| 

           इक औरत की सीमाएं बहुत ही संकुचित है लेकिन इक पुरुष, इक पति देवदासियों के पास आनंदप्राप्ति के लिए जाता है और इक पत्नी को इससे किसी भी तरह की दिक्कत नहीं होनी भी चाहिए और अगर है भी तो उन्हें तो अँधेरे में धकेला ही गया है ताकि वो कुछ देख न सकें या फिर न देख पाने का छद्म करें| वे संबंधों की गरिमा के निर्वहन के प्रति सचेत, अपनी पीड़ा के गरल को खामोशी से घूँट रही है|  'स्व' विहीन स्त्री काठ की कठपुतली बन कर रह गयी है और यह आज का बहुत भयावह सत्य भी है कि पुरुषों कि सामंतवादी सोच आज भी स्त्री को 'मात्र देह' रूप में देख रहा है लेकिन अब ऐसी आवाज़ ढूँढने कि ज़रूरत है जो देह बनने से इनकार कर दे|

                                              है ख्वाहिश इक नए आसमां की|
                                              देखती हूँ कौन से रंग भर पाउंगी||

Monday, May 2, 2011

kahani

गज़ब की कहानी है मेरी
सोचते ही अजीब सी कैफ़ियत हुई
देखा अपनी किस्मत को
अपने ही हाथों से फिसलते हुए
आंसुओं को अपने जो मैंने रोकना चाहा
उनके सिलसिलों में भी बरक़त हुई
सैलाब आया इक एकदम नया
जिससे मेरी ज़िन्दगी में हलचल हुई
इक करवट ने बदल दी सारी फ़ज़ा
उसे न कोई भी ज़हमत हुई
दूसरों की मुस्कुराहटों की क़ीमत
मेरे बिस्तर की सिलवटें हुई
फुरकत ही फुरकत है अब 
मेरी खुशियों का निशाना मेरी यादें हुई..................

Thursday, April 28, 2011

lamha...

लम्हें आज गुज़र जाने को है
मगर फिर भी इक ठहराव सा है
मन में इक बेचैनी सी है
जैसे कहीं इक कोने में
जल रहा भयानक अलाव है
चाहती तो मैं यही थी
कि कब ये लम्हा बीत जाए
लेकिन क्यूँ खो जाने का डर 
मेरे वुज़ूद को झंकझोर रहा है
दिल और दिमाग में आज फिर
वही द्वन्द युद्ध चल रहा है
किसने कहा मैं खुश हूँ
मेरा खुद ही मुझे काट रहा है
निशाँ पर चुके हैं मेरी रूह पे
ज़ख्मों के जो बहुत गहरे हैं
मलहम जो सोचा कर लूँ इन पर
ये तो उन लम्हों के लिए ही विह्वल हैं 
क्यूँ हर बार ये लम्हें खुद
मेरी घावों को कुरेदते हैं
मुझे प्यार नहीं अब रत्ती भर भी
फिर क्यों ये मेरी नफरत को तौलते हैं
लम्हा लम्हा वक़्त गुज़र जाएगा
ये सोच कर खुद को दिलासा दिया था
लेकिन वो भी खोखले निकले
जब ये लम्हें ही बागी बन गए
इनसे भागने कि कोशिश में 
मैं खुद से भागी थी इतनी दूर
सारी कोशिशें हुई बेकार  मेरी
वो आज भी खड़ी हैं होके मगरूर .................

Tuesday, April 19, 2011

naseeb....

देखा मैंने आज आसमाँ को बड़े गौर से
इक तरफ वो बादलों से था घिरा
और दूसरी तरफ वो काले साये से था जुदा 
कैफियत हुई ये देख कर मुझे अजीब सी
इक ही पल में कोई कैसे हो सकता है दोहरा 
अभी जिसकी तपिश ने संवारा था मुझको 
जिससे दगा की उम्मीद भी बेवफाई थी
झंकझोर दिया पल भर में ही मेरे ख्वाब को
झमझम करती बारिश की बूंदों की आवाज़ ने
अभी फिर से दिखी दूर कहीं मुझे नयी रौशनी 
लकिन वो भी पल दो पल को ही साथ रही
पलछिन साथ रहने का वादा देकर
मेरे नसीब में ये रातें ही आबाद रहीं...................

main.....

कौन कहता है मैं इंसान नहीं
गर जो  मुझे खिलौने पसंद हैं
फिर तो वो भी दरिंदा है
जिसे मेरी पहचान नहीं

हवश भरी हर उन आँखों में
हर चीज़ छीनना चाहता है 
मुझमे तो चाहत है एक 
जिसे हर बच्चा पहचानता है

बताशों को देख आज भी 
यह मन मेरा ललचाता है
बालों में आज भी वो हाथ
मुझे चैन की नींद सुलाता है

लोग फिर भी कहते हैं 
मुझमे सोचने की क्षमता नहीं 
अब बड़ी हो गयी हूँ मैं
मेरी उम्र को यह भाता नहीं

है मन में उठा इक सवाल मेरे
इनकी सुनूँ मैं तो क्यूँ सुनूँ
अगर बड़ी हो चुकी हूँ मैं
तो क्यूँ न अपने रास्ते खुद चुनूँ

सुन कर सबकी बातों को
जो अमल करना मैंने शुरू किया
बात तो फिर वहीं रुकेगी
है मैं का मैंने हनन किया

क्यूँ बदलूँ मैं उनके कहने पर 
अपने अस्तित्व को क्यूँ ख़त्म करूँ 
लड़ाई तो आज भी वहीं है 
मेरा मैं ही मेरी पहचान बने............

Monday, April 11, 2011

blame me.....

someday someway
we will find a new ray
somebody taught me
sitting on the dry hay

are you happy and gay
was what i was asked
till i sat very firm
suddenly got a flap

stunned for a while
decided to bid a goodbye
thought was i the culprit ?
why would i resign?

to continue the conversation
i asked to move on
blame me for all for sure but,
you too weren't a juvenile

if i am the one
who caught you in the flame
you were someone
preferred sinking in the same

better you stop the blaming session
better you stop the blaming session. . . . . 

Thursday, April 7, 2011

they wanted...........

They wanted therefore I am,
what I am today..
fighting like beasts on a normal issue,
thinking of self in the whole queue....
centred with "I" like none is beside,were I born the same here I reside...
nature no more seems natural,
be it sun moon & lilac color..
lie betrayal beguile cheating,
all mischieves have settled in...
If there anybody could answer,
send me back the past in the mirror...
would have stand & ask in front,
where have I lost all I had...
jingle bell & fairy tales no more up,
innocence love concern now sucks...
Ghandhi has lost his image of the hero,
his efforts now counts a zero...
"live and let other live" is framed still,
dominance and jealousy pumps itself to fulfill...

I AM NO NO MORE A HUMAN BUT A STONE...!!!!!!

laughing at the climax being brave,
the path of glory leads but to grave...
But the earth has formed its theory,
survival of the fittest & the glory...
very human is this of me,
cut some throats and set yourself free...!!!

kab talak.......

कब तलक ज़िन्दगी यूँ साथ देगी
कब तलक यूँ प्यार की बरसात होगी
कब तलक यूँ जूझते रहेंगे सब
कब तलक इक नयी शुरुआत होगी

कब तलक  बस आप ही सरताज होंगे
कब तलक बस आपका ही राज होगा
कब तलक घिसेंगी ये एड़ियां 
कब तलक नयी न कोई आग़ाज़ होगी

कब तलक आंसुओं के बूँद पीकर 
कब तलक बस इक फ़रियाद होगी 
कब तलक दूसरों की फरमाइशों पर
कब तलक साँसे यूँ बर्बाद होंगी

कब तलक इंसानियत की वजह से 
कब तलक हैवानों के हाथ होगी
कब तलक ख़्वाबों के कारवां पर
कब तलक सपनो में ही संवार होगी.......

Tuesday, April 5, 2011

yun hi...

गुमराह हूँ इन रातों में 
अँधेरे से खौफज़दा भी हूँ
संभालना मेरी इस रूह को
तेरे आने से गर ये बागी जो हो

कसूरवार वैसे ये भी नहीं
खतावार खुद को भी न समझ
ये तो शिरीन हैं तेरे लब
बदनसीब ही उनका कायल न हो.......     

dilli hai......

सफ़र कर रही थी मैं
आज हर रोज़ की तरह
मगर अचानक पाया मैंने
कुछ तो है घटा नया

नए चेहरे नयी सोच
लेकिन वही हडबडाहट है
किसी को दफ्तर जाना है
कोई कॉलेज के लिए लेट है

यहाँ हिन्दू यहाँ मुस्लिम
की चर्चा जोरो-शोर है
सामने बैठी एक छोटी बच्ची 
ताक रही सब ओर है

फैशन का ये ताना-बाना
आज दिख रहा पुरजोर है
calvin klein और versace के
packets में भी होड़ है 

सीट पर बैठी नयी पीढ़ी
बूढों को कर रही ignore है  
matching टी-शर्ट matching चप्पल
pepsi की तरह मांगे ये more हैं

spikes और i -pod है in 
ये दीखता हर रोज़ है
इनके बीच सूती की साड़ी
आज भी फबती बजोड़ है

यहाँ का जशन यहाँ की रातें
दिखती ताबड़तोड़ हैं
किलों से घिरी इस जगह
में रहते लोग करोड़ हैं
जो भी है जैसा भी है
हर रोज़ ये  नवीन है
इस पर भी न शक किसी को
कि दिल्ली सा न कोई और है........

Sunday, April 3, 2011

घुमते घुमते इक रोज़
मैं इतनी दूर निकल आया 
मुड़ना जो चाह मैंने
कहीं न मैंने सहर पाया

वक़्त फिसला कुछ ऐसे
रेत हाथो में समेटा हो
खूबसूरत कोई सपना जैसे
अभी अभी आँखों से लुटा हो

अब थक चूका हूँ मैं
चलते चलते अनजान डगर
कहीं से मिले मुझे
हो जिससे पहचान मगर...........