Saturday, November 22, 2014

ख़्याल और ख्वाहिशें

ख़्याल  और ख्वाहिशें  काश की एक दूसरे  का पर्याय होतीं। …
ज़िन्दगी वाकई कितनी गुलज़ार होती ना ?
मालूम है ये मुमकिन नहीं , महज अफ़सानों  में ताक़ीद  हैं इनकी
ख़ैर  ज़िन्दगी छोटी सी  मिली है हमें ,
तो सपने और हक़ीक़त को जोड़ने की ये कोशिश,  
भी तो हम इसी छोटी सी ज़िन्दगी में करेंगे ना?

आप कह सकते हैं , टोक भी सकते हैं अगर आपको मेरी बात तर्कसंगत ना लगे तो। .

 छोटी सी कहानी याद आ गयी ,  बचपन में माँ सुनाया करती थी।  आपने भी सुनी होगी।   वही सपनों और हक़ीक़त की कहानी।

मेरी माँ हमेशा ही किताबों में गुम रहती हैं । न ज़्यादा किसी से बोलना और ना ही ज़्यादा किसी से मतलब रखना।  लेकिन हाँ किसी की मदद करने में कभी पीछे नहीं हटी , मदद चाहे जैसी भी हो.  . आर्थिक , शारीरिक या फिर मानसिक। मानसिक यूँ  कि  लोग माँ के पास आकर अपना दुखड़ा रोते थे और माँ चुपचाप ध्यान से उनको सुनती थी।  चूंकि माँ को बोलने की ज़्यादा आदत तो थी नहीं ,लोग आकर अपना  फ़्रस्ट्रेशन निकालते थे और चले जाते थे.  जैसे माँ भारतीय डाक सेवा का चौबीसो घंटे देने वाली सेवा का काम करती  और लोग कभी भी आकर भारतीय डाक सेवा का पोस्टबॉक्स समझकर अपनी चिट्ठी और दरख्वहस्त  डालते रहते थे . इन चीज़ो को देखकर बहुत कोफ़्त होती थी बचपन में मुझेऔर ग़ुस्सा भी आता था।   मैं माँ को पूछती थी आपको ग़ुस्सा नहीं आता कि लोग आपको use कर रहे हैं और यहाँ से बाहर जाते ही आपकी बुराई करते हैं.  माँ पूरे शांत चित्त से जवाब देती थी की ऊपरवाला भगवान  सब देख रहा है और अगर आप अच्छे हैं तो वो आपके साथ कभी कुछ बुरा नहीं होने  देगा।

 ये बात बचपन से ही ज़ेहन में बैठ गयी की अच्छे काम करो  भगवान है ना आपके साथ  बुरा नहीं होने देंगे।  लोग भले ही आपके लिए कितना भी बुरा सोचें और आपके ख़िलाफ़ किसी भी तरह की साज़िश करें।  माँ एक बात और भी बोलती थी कि जो होता है वो अच्छे के लिए होता है इसलिए तुम बस कर्तव्यबोध रखो अपना अधिकार क्षेत्र बस मुझ तक सीमित रखो।  माँ की इन्हीं बातों की गाँठ इस कदर कसकर बाँधी थी कि अब लाक कोशिशों के बाद भी ये जिरह खुलते नहीं खुल रहे।  बात बचपन की, जिसे गुज़रे भी ज़माना हो गया लेकिन कमबख़्त उंगलिओं में गाँठ पर गयी लेकिन माँ की सिखाई गयी इन बातों की गाँठ नहीं खुली।

 आज २२ साल बाद भी कुछ नहीं बदला ।  माँ की बाँधी गयी वो गाँठ, लोगों का माँ के पीछे उनपर  हँसना फिर भी माँ का बिना किसी स्वार्थ के उनकी मदद करना।   बस माँ की लाइब्रेरी में किताबों की गिनती ज़्यादा हो गयी है और माँ की तरह मेरी ज़िन्दगी में भी लोगों का मज़मा लग गया है।  एक लम्बी फ़ेहरिश्त लोगों की जो आपको निचोड़ना चाहते हैं।  फिर भी  लोगों के  आँखों में आपके लिए वही तिरस्कार और वितृष्णा दिखती है।  मुझे भी अच्छे से मालूम है और माँ को भी हम चाहे कुछ भी कर लें हम इन लोगों के लिए तिरस्कृत ही रहेंगे।

 लेकिन , साहब यही तो एक ख़्वाहिश है मेरी जो काश लोगों के ख्याल से मिलती।  दोनों एक ही तरफ जा  रहे हैं लेकिन समानांतर।  मेरी माँ और मेरा एक सपना जो शायद ही कभी  हक़ीक़त का चेहरा देख पाए।  देखा सही लिखा था ना मैंने कि ज़िन्दगी छोटी सी है तो सपने और हक़ीक़त को जोड़ने की ये कोशिश भी तो हम इसी छोटी सी ज़िन्दगी में करेंगे ना।  एक मिथक कोशिश !!!