Monday, May 7, 2012

चुनावी समीकरण या सेमिफाइनल ....

जनवरी 2012 में देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव करने के चुनाव आयोग के फैसले ने 2012 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार कर दी है या फिर यूँ कहें की जनवरी 2012 में हुए पांच राज्यों का चुनाव 2014 चुनाव का सेमीफाइनल मैच था। इन चुनावों के नतीजे  बिलकुल ही आश्चर्यजनक  हुए जो की कहीं न कहीं 2014 कहानी बयान कर रहे हैं... इस चुनावी नतीजे के तीन मुख्यतः कारण हैं।..पहला कारण है 2 बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और पंजाब में कांग्रेस को मिली बड़ी असफलता और upa सरकार में खुद कांग्रेस की political authority का ह्रास होना। दूसरा बड़ा कारण है क्षेत्रीय पार्टियां जैसे की समाजवादी पार्टी और अकाली दल का बड़े चेहरे की तरह सामने आना और साथ ही साथ अन्य छोटी छोटी  क्षेत्रीय पार्टियों का इन बड़ी क्षेत्रीय पार्टी में विघटन... तीसरा कारण है upa सरकार की इस आपदा का फायदा उठाती upa में शामिल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी यानी की तृणमूल कांग्रेस। तृणमूल कांग्रेस की तरफ से खेला गया राजनितिक खेल कांग्रेस के लिए हर तरह से खतरनाक साबित हो रहा है। 

कांग्रेस सरकार पर चुनावी नतीजों की काली छाया उन नतीजों के बाहर आने से पहले ही मंडराने लगे थे। पूर्व रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता दिनेश त्रिवेदी ने बहुत पहले ही कहा था की मध्यावधि चुनाव जल्द हो सकते हैं और उन्होंने अपने इस बयान  का सही ठहराते हुए यह बयान दिया की अगर वो सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव होते तो वह देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य होने का फायदा  उठाते हुए  लोकसभा के मध्यावधि चुनाव तुरंत करने की मांग करते। 

upa सरकार में शामिल कई नेताओं के लिए त्रिवेदी का ये बयां बहुत ही तर्कसंगत लगा। उन्होंने ज़रूर सोचा होगा की 2014 चुनाव से पहले ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीट अपने नाम कर लें ताकि  तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी से वोटों के नाम पर  मांडवाली करना आसान हो जाईगा जैसे की आज तृणमूल चकों ग्रेस के लिए हैं।

हास्यास्पद स्थिति तो तब हुई जब अपने इस वक्तव्य के बाद त्रिवेदी ही मध्यावधि चुनाव के जल्दी होने के कारण नज़र आने लगे जब तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और  पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने रेलवे किराया बढाने जाने पर त्रिवेदी के इस्तीफे की मांग पकड़ कर ममता दीदी बैठ गयी थी।..उन्हें बहुत ही समझाने की कोशिश हुई लेकिन वो अडिग रही और अंततः हमारे माननीय प्रधानमन्त्री को ममता की जिद्द के आगे झुकना पड़ा।  त्रिवेदी क अपने पद से  इस्तीफ़ा देना पड़ा लेकिन इस बात से क्या सचमुच मध्यावधि चुनाव किये जाने पड़ते इस बात को देखने से हम चूक गए। बहरहाल विधानसभा चुनाव परिणाम ने क्षेत्रीय पार्टियों को और भी मज़बूत पक्ष में लाकर खड़ा कर दिया है और ये शक्तियां upa सरकार के बाहर और भीतर दोनों ही तरफ  से सरकार पर दबाव बनाने के लिए हमेशा तत्पर हैं।

6 मार्च के चुनावी परिणाम ने मध्यावधि चुनाव के जल्दी होने की आशंका को और भी प्रबल कर दिया हैऔर इस प्रबल आशंका को सहमती की मुहर लगाने के लिए राजनीति  के बाज़ार में एक नयी चीज़ लेकर आये हैं हमारे गृह मंत्री पी चिदंबरम साहब और इस चीज़ का नाम है एनसीटीसी.. फिर भी किसी भी तरह हर कहर से खुद को बचती बचाती हुई upa सरकार  2014 से पहले मद्यावधि चुनाव से बचना चाह रही है। 

कांग्रेस सरकार का खुद को मध्यावधि चुनाव से बचाने का इक मात्र कारण है 2012 विधानसभा चुनाव के परिणाम। 2012 चुनाव का परिणाम देश की दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी के लिए बुरा साबित हुआ। बीजेपी को भी क्षेत्रीय पार्टियों के हाथ मूकी खानी पड़ी। saffron party ने फिर भी पंजाब और गोवा में जीत हासिल की और उत्तराखंड में भी अपनी शाख को बचाए रखा। फिर भी rss का ये मानना है की जिस तरह से ये कुछ पार्टियां सामने आ रही हैं उस हिसाब से बीजेपी के लिए 2014 के चुनाव में  पूर्ण बहुमत से जीत पाना मुश्किल है। 

बहरहाल 2012 के चुनावी नतीजों से ये साफ़ हो गया है की देश की जनता केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों से दुखी हो चुकी थी और उन्हें सत्ता परिवर्तन चाहिए थ... और इस परिवर्तन की मांग उन्होंने सरकार की नाकामयाबी हाही , महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान होकर की थी और इस बात पर भी गौर किया गया की देश की जनता राज्य सरकार से ज्यादा केंद्र सरकार पर कुपित है। 

इस विधानसभा चुनाव परिणाम का असर न सिर्फ दो बड़ी पार्टियों पर  पड़ा है बल्कि पंजाब और उत्तरप्रदेश में सत्ता में पीढ़ी परिवर्तन भी हुआ है। इस चुनाव में अखिलेश यादव और सुखबीर सिंह बादल जैसे दो कम उम्र और बड़े चेहरे सामने उभरे। दोनों चेहरे क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीतिक उपलब्धि और राजनीति, प्रशासन, विकास और अर्थव्यवस्था के  क्षेत्र में नयी सोच बनकर उभरे हैं। 38 साल के अखिलेश यादव ने न सिर्फ सपा की तरफ से पार्टी प्रचार के जिम्मा अपने कंधे पे उठाया बल्कि अपनी मिहनत के कारन राज्य का दारोमदार भी अपने कंधे पर लिया...अपने CAMPAIGN ने अखिलेश ने इस तरह के स्लोगन्स का उपयोग किया था जो न की सिर्फ  मुस्लिम और यादवं का वोट बैंक बटोरने के लिए बनाया गया था बल्कि तरक्की और तकनिकी के नुस्खों से भी लैस था। अखिलेश यादव के प्रचार के इस तरीके  ने 1 बात तोह साफ़ कर दी है की अखिलेश में अपने पिता की तरह राजनितिक गुण भरे हुए हैं और साथ ही साथ उन्हें ये भी पता है की आज की  पीढ़ी को क्या चाहिए तभी तो अखिलेश सामंती सोच रखने वाले लोगों को साथ रखते हुए नयी पीढी का वोट अर्जन भी कर पाए।  इससे एक और बात साफ़ है की अब ये भ्रान्ति बिलकुल ही मिट जानी चाहिए की ये बड़ी बड़ी पार्टियों के नाम पर अब वोट पाना आसान होगा क्यूंकि अब वोते हमारी नयी पीढ़ी भी देती है जिस पीढ़ी को आपकी पारिवारिक उपलब्धि नहीं वरन आपके काम से... 

वहीँ जहाँ अखिलेश और सुखबीर सिंह बदल की झोली में सफलता आई वहीँ देश की सबसे बड़ी राजनितिक पार्टी के राजकुवर राहुल के हाथ आई हार। 2010 के बिहार चुनाव में पार्टी महासचिव पार्टी को सफलता नहीं दिला पाए वहीँ 48 दिनों में 211 रैली करने के बाद भी कांग्रेस उत्तरप्रदेश में बस 28 सीटों पर जीत दर्ज करा पायी जो  की 2007 की  22 सीटों पर बढ़त तिथि। सबसे शर्मनाक तोह था गांधी परिवार के गढ़ रायाबरेली और अमेठी में कांग्रेस की 2012 चुनाव में हार। राहुल की हार यानी की कांग्रेस की इस हार का सबसे बड़ा  कारण था राहुल गाँधी के प्रचार के तरीको का आम जनता तक न पहुचना। कभी कभी तो  ऐसा लगता है की राहुल ने COMMUNICATION की THEORY पर कभी गौर नहीं किया जो कहती है की FEEDBACK IS A MUST IN A SUCCESSFUL COMMUNICATION.यानी की राहुल अपनी बात  लोगों तक रखते हैं लेकिन व बातें लोगों क समझ आये न आए इससे राहुल को कोई दरकार नहीं है। इन सबसे भी बड़ी मजेदार बात ये है की कांग्रेस की दुरा स्तिथि को देखने के बाद भी कुछ कांग्रेसी नेताओं का कहना है की पार्टी की शाख बचाने का इकलौता रास्ता ये है की राहुल गाँधी को प्रधानमत्री बना दिया जाए ताकि देश की स्तिथि और उससे भी ज्यादा देश 
 देश में कांग्रेस की स्तिथि में सुधार होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं की विधानसभा चुनाव ने दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों को मंझधार में छोड़  दिया है और   REGIONAL PARTIES बड़ी ताक़तें बन कर उभर रही हैं और ब्वाहीं दूसरी तरफ UPA 2 सरकार का तख़्त हिलता हुआ नज़र आ रहा है क्युकी लोगों के हिसाब से 2010 से ये पार्टी LAME DUCK की तरह काम कर रही है।इसका इक मात्र उपाई ये है की कांग्रेस को अब अपने गठबंधन सरकार के साथ बिलकुल ही ध्येय  के साथ काम करना होगा जैसा की सोनिया गाँधी 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले करती थी।.अब देखना ये होगा की क्या कांग्रेस फिर से एक मजबत पार्टी बनकर उभरेगी ? इस सवाल का जवाब अभी तक सुदूर में भी  हाँ में नहीं दिख पा रहा है लेकिन यदि फिर भी ऐसा होता है तो भी मुलायम, अखिलेश, नितीश इक बड़े FACTOR बने रहेंगे।