Friday, June 24, 2011

राजघाट एक दृश्य...

इस बारे में मेरा लिखने का मन उसी दिन था जिस रोज़ मैं अन्ना हज़ारे द्वारा बाबा रामदेव के समर्थन में चले आन्दोलन में गयी थी, किन्तु समयाभाव में लिख नहीं पायी....यहाँ समयाभाव शब्द का प्रयोग बहुत ही कृत्रिम लग रहा है परन्तु सच माने तो हज़ारे का भ्रष्टाचार मिटाओ मुहिम एक ऐसा विषय है जिसपर हम राह चलते नहीं लिख सकते...और शायद वहां पहुच कर, वहां के दृश्य को अपनी आँखों से देख कर तो यद्यपि शब्द का प्रयोग बिलकुल ही अप्रासंगिक होगा....

चार तारीख़ को रामदेव और उनके समर्थको के ऊपर आधी रात को हुए अत्याचार के विरोध प्रदर्शन में हज़ारे और उनकी सेना राजघाट पर बैठी थी...एक बात पर मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ कि जिन अन्ना ने घंटो बिता दिए बिना कुछ खाए-पिए उन्हें अपने समर्थकों का बहुत ही ख्याल था...बाहर के सैतालीस डिग्री तापमान से अपने बंधुओं को लड़ने की ताक़त  देने के लिए उन्होंने पानी और पंडाल का इंतज़ाम किया था...मुझे सचमुच अन्ना की यह कोशिश बहुत ही अच्छी लगी..यहाँ तक कि उनकी सभा में पुरुषों की लघुशंका को मिटाने की सुविधा भी मुहैय्या करायी गयी थी...अच्छा अब बात करते हैं उस सभा की जिसके बारे में दरअसल मैं लिखने बैठी हूँ....जैसा की मैंने सोचा था उसके अनुरूप लोगों की भीड़ बहुत ही ज्यादा थी...यह एक तरह से मेरे लिए अच्छा भी था क्यूंकि मुझे अपने आफिस द्वारा दिए गए कार्य को अच्छे से और निर्धारित समय में कार्यान्वित करना था....उस भीड़ के बीच बैठे थे हमारे भ्रष्टाचार विरोधी सेनानी हमारे प्यारे अन्ना...और साथ में थे अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण....गौरतलब बात यह थी की इस सेना के मंत्री ही नज़र नहीं आ रहे थे और वो थे हमारे स्वामी अग्निवेश...ख़ैर लोग कई गुटों में बटकर भी अन्ना का समर्थन कर रहे थे...

मुझे यह देख के बहुत ही अच्छा लगा कि वहां बुड्ढे, जवान और मेरे सोच के विपरीत छोटे छोटे बच्चे भी शामिल होने आये थे...अभी तक तो मैंने इस लड़ाई के अच्छे पहलुओं पर बात कर रही थी....लेकिन अब इसके बुरे पहलुओं पर आप सबका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी...वहां पर लोगों कि भीड़ थी इसके बारे में तो मैंने आपको बतलाया और सच मानिए जब बाबा रामदेव्  के उस शिविर के पीड़ित लोगों ने अपनी बात हमारे सामने रखी तो एक आम इंसान कि तरह मेरे रौंगटे भी खड़े हो गए...किसी निहथ्थे और सोते हुए पर वार करना तो आपको कायर की श्रेणी में ही रखता है...ख़ैर मैं यहाँ न्याय की मूर्ति बन खुद को तराजू के साथ खड़ा करने के किसी मन से नहीं आई....क्यूंकि मेरी अपनी मानसिकता मुझे योगगुरु के साथ नहीं खड़ा होने देती किन्तु औरतों के साथ हुए अत्याचार का मैं पुरज़ोर विरोध करती हूँ....राजघाट में पहुची उन औरतों ने जब अपनी जुबानी सुनाई तो मुझे इससे दिल्ली पुलिस की ताक़त नहीं बल्कि उनकी बर्बरता का वो उदाहरण मिला जिसकी पूर्ति गंगा नदी दसों बार इस धरती पर मानव शरीर लेकर उतरकर भी नहीं कर पाएंगी... 

मैं फिर से अपने उपर्युक्त शब्दों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती हूँ की वहां बड़ी तादाद में बुढ्ढे बच्चे और जवान आये हुए थे....लेकिन जहाँ तक मेरी सोच पहुची मुझे लोगों में वैसा कोई आक्रोश नहीं दिखा...आक्रोश तो बहुत ही सुदृढ़ शब्द हो गया, मुझे लोगों में वह कारण ही अकारण अनुपस्थित दिखा जिसकी वजह से वो एक अहिंसा के पुजारी की समाधि पर उपस्थित हुए थे...वह भीड़ मुझे अन्ना के समर्थकों की नहीं अपितु भेड़ियाधसान लगी...सभी लोगों की लगभग एक सी सोच लगी की भैया चलो चलते हैं राजघाट...फरवरी में इनकी सभा में बहुत भीड़ थी तो इस बार हम उनकी भीड़ में पहुच कर उसमें चार चाँद लगा दें...लोग बेशक नारे लगा रहे थे, पोस्टर्स बना के अपना विरोध दर्शा रहे थे, कईयों ने तो खुद को तिरंगे से सजा लिया था....लेकिन यकीन मानिए मुझे हर एक चीज़ मंदिरों में पुजारिओं के आडम्बर से कम नहीं लगी...वहां हर एक चीज़ बहुत ही artificial सी थी...कुछ ऐसे गर्म खून भी थे जिन्होंने संगीत को अपना अस्त्र चुना था और वो वहां बैठ के देशभक्ति गाने गा और बजा रहे थे...और हम प्रेस वाले उन्हें अपने कैमरे में क़ैद कर रहे थे...इतना कुछ लिखने के बाद मैं ही यह भी लिख रही हूँ की मैंने इन सब लोगों को अपने काम का भागीदार बनाया...अजी हम पत्रकार करें तो करे क्या हम भी अपने पेशे के मारे हैं और हमारे प्रेस मालिक commercialisation के...
अब मैं अपने इस लेख को विराम देने का मन बना रही हूँ क्यूंकि रात काफी हो चुकी है और निद्रादेवी मेरे मानसपटल पर बार बार तुषारापात कर रही हैं...लेकिन मैंने एक बात जो राजघाट के दृश्य से सीखी है वो यह की लोगों में जज़्बा है...ताक़त है...और मेरी सोच के विपरीत इंसानियत भी है लेकिन एक जो सबसे बड़ी कमी है वह है अंग्रेजी के concept not clear की दिक्क़त..जिससे पार पाना शीघ्र और अतिशीघ्र अतिआवश्यक है...क्यूंकि अधजल गगरी से पानी छलक के गिरता ही है चाहे हम उसपे कितनी भी ऐतिहात से काम करें... तभी इस देश और इसकी जनता का सर्वोपरि विकास हो पाएगा....और हम सभी परेशानियों पर लंका विजय कर पाएंगे...

Friday, June 10, 2011

पुरानी गली.....

अरसां बीत गए उस गली में आये हुए
आज कदम रखा तो जैसे महसूस हुआ
जुदा था वो मेरे वूजूद के हिस्से से
दबा था वो मेरे दिल के किसी कोने में

वो गली जिससे मेरा बचपन था बीता
उनकी यादें आज भी बेनज़ीर हैं
कभी ये बतलाने की कोशिश न की
आज निकले बरबस आंसुओं ने सब कह दिया

गली की वो मिटटी की भीनी खुशबु
आज भी दिल को खुशनुमा कर रही है
इस ज़मीन पर रखा हुआ हर इक कदम
मेरे दिल पे दस्तक दे इंतिला कर रही है

शाम के वक़्त इस गली में टहलना
बिजली गुल होने पर यहाँ घूमते ही जाना
गली की दोनों तरफ लगी वो दीवार
जहाँ बैठ हर शाम गप्पे लड़ाना

ये यादें आज भी लगती बहुत हसीं हैं
लोगों को लगता ये मेरा दीवानापन है
हँसते हैं वो समझाते भी हैं
कहते हैं अब ये एक पुरानी गली है.......