Thursday, April 28, 2011

lamha...

लम्हें आज गुज़र जाने को है
मगर फिर भी इक ठहराव सा है
मन में इक बेचैनी सी है
जैसे कहीं इक कोने में
जल रहा भयानक अलाव है
चाहती तो मैं यही थी
कि कब ये लम्हा बीत जाए
लेकिन क्यूँ खो जाने का डर 
मेरे वुज़ूद को झंकझोर रहा है
दिल और दिमाग में आज फिर
वही द्वन्द युद्ध चल रहा है
किसने कहा मैं खुश हूँ
मेरा खुद ही मुझे काट रहा है
निशाँ पर चुके हैं मेरी रूह पे
ज़ख्मों के जो बहुत गहरे हैं
मलहम जो सोचा कर लूँ इन पर
ये तो उन लम्हों के लिए ही विह्वल हैं 
क्यूँ हर बार ये लम्हें खुद
मेरी घावों को कुरेदते हैं
मुझे प्यार नहीं अब रत्ती भर भी
फिर क्यों ये मेरी नफरत को तौलते हैं
लम्हा लम्हा वक़्त गुज़र जाएगा
ये सोच कर खुद को दिलासा दिया था
लेकिन वो भी खोखले निकले
जब ये लम्हें ही बागी बन गए
इनसे भागने कि कोशिश में 
मैं खुद से भागी थी इतनी दूर
सारी कोशिशें हुई बेकार  मेरी
वो आज भी खड़ी हैं होके मगरूर .................

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