घुमते घुमते इक रोज़
मैं इतनी दूर निकल आया
मुड़ना जो चाह मैंने
कहीं न मैंने सहर पाया
वक़्त फिसला कुछ ऐसे
रेत हाथो में समेटा हो
खूबसूरत कोई सपना जैसे
अभी अभी आँखों से लुटा हो
अब थक चूका हूँ मैं
चलते चलते अनजान डगर
कहीं से मिले मुझे
हो जिससे पहचान मगर...........
badi hi khubsurat hai aap ki yeh kavita..
ReplyDeletegr8 yaar...
ReplyDeleteek behatrin rachna......
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