Sunday, April 3, 2011

घुमते घुमते इक रोज़
मैं इतनी दूर निकल आया 
मुड़ना जो चाह मैंने
कहीं न मैंने सहर पाया

वक़्त फिसला कुछ ऐसे
रेत हाथो में समेटा हो
खूबसूरत कोई सपना जैसे
अभी अभी आँखों से लुटा हो

अब थक चूका हूँ मैं
चलते चलते अनजान डगर
कहीं से मिले मुझे
हो जिससे पहचान मगर...........

3 comments: