Thursday, May 21, 2015

अधूरा सा है !

शाम को आना था तनहाई में मेरी ।
रुस्वाई में भी आई तो ख़ैर कोई बात नहीं।
मंज़िल ए अलफ़ाज़ का पहुंचना था लाज़मी।
बाबस्ता ना पढ़ो तो ख़ैर कोई बात नहीं।


शाम ढलती हुई, मेघ आपस में अठखेलियां करते हुए और कहीं दूर से मद्धम सी कानो में पड़ती हुई सुर से सजे हुए ये नज़्म।  खिड़की की ओट में बैठ ऐसा लग रहा था जैसे आप घंटों बैठे अपनी कविता के लिए वो आखरी शब्द ढूंढने की जिरह में अभी तक दसियों पन्ने फाड़ के फ़ेंक चुके हों, दस- बारह प्याली चाय पी चुके हों और न जाने कितने सिगरेट के बट को ऐशट्रे में बुझा चुकें हों और आपको आपके पांव के नीचे आई माचिस की तीली से उस परफेक्ट वर्ड जिसकी आपको तलाश थी की चिंगारी सी जलती हुई सी दिखे।  बेहद खूबसूरत अनुभूति होती है न तब। अपने अंदर भरे उस खालीपन को प्यार से भरने की अनुभूति। मैं अपने तसब्बुर में पता नहीं कब तब सैर करता रहा , भक्क जो टूटी तो सामने चाय का कप और इंदौर के नमकीन रखे हुए थे और पुरानी फिल्मों की तरह सामने मुंह हिलाता हुआ मेरा नौकर।  मैं कुछ सुन नहीं पा रहा था कि वो क्या कहना चाह रहा है जैसे मैं किसी शून्य में था , उसकी तरफ पूरी टकटकी मैं  देखे जा  रहा था और कुछ देर बाद वो अपना सर अफ़सोस में हिलाता हुआ कमरे से बाहर निकल गया।  जब मैं पूरी तरह होश में आया तो सामने रखी चाय की प्याली से आती ख़ुश्बू मुझे सम्मोहित करने को तत्पर दिखी। प्याली उठा कर मैंने उसकी इक चुस्की ली और नमकीन खाए और इक ख्याल को खुद से मद्देनज़र किआ।  क्यों ना हर शाम की तरह इस शाम को ज़ाया ना कर आज कुछ किया जाए, कुछ तो नया, बिलकुल अलग।

मैंने झट से अपने नौकर को मेरा कैनवास लाने को बोला।  उसने कहा बाबू कहाँ इन चक्करों में फंसते हो।  तुम्हारा कैनवास कहीं स्टोर रूम में पड़ा होगा, गन्दा होगा।  चलो मान लो मैं लेता भी औ सफाई करके लेकिन इस अँधेरे में उसकी धुल अच्छे से नहीं जाएगी और तुम्हे तो बाबू धूल से दिक्कत हुए जात है।  फिर तबियत ख़राब हुए जावेगी तो किसकी जान पे बनइहें।  उसकी इतनी पटर पटर सुन के मुझे रंज हुआ और हसी भी आई कि मैं इसका मालिक हूँ या ये मेरा।  मेरी बात मानना तो कोसो दूर उल्टा मुझे ही नसीहतें दे रहा है. मैंने इस बार थोड़े  कठोर अल्फ़ाज़ों का इस्तेमाल करके कहा- जितना कहें तोहरा से  वो करो, झूठ की हमेशा अपनी बोलती ना बतियाया करो।  हमरे बाप ना होउ तुम औरे नाहिए बनबे की कौसिस करो।  अब मुंह ना निहारो औरो लै के आवो जल्दी से।  वो कमरे से निकला तो बाहर लेकिन  उसकी गुस्से से भरी चाल मुझे समझ आ गयी थी।  थोड़ी देर बाद मेरे कमरे में आवाज़ आई। मुझे सब पता था वो मेरी बावर्ची पर मेरा गुस्सा उतार रहा था।  इतनी बार समझाएं हैं तुमका सब जगह में अपनी नाकिआ ना घुसेड़ो पर नाही हमरी तो कौनो सुनता कहा हैं।  बाबू को भी पता नहीं उ सफ़ेद जंतर पे अभी क्या करना है।  अब अभी मिहनत करके उ को साफ़ करो और काल जब बााबु के तबियत खराब होइ तो बाबू के सेवा में जीवन ख़राब करो।  हम तो पागल हैन ऐसे ही कुच्चू बोल देत हैं हमरी तो ससुरी कौनो भेळू ही नहीं है।

 मैं बहुत तेज़ हंस पड़ा फिर सोचा की अभी जो कि अभी जो मन में है उसे पहले कैनवास पर उतार लूँ फिर अफसरी रुतबा रखने वाले अपने नौकर से भी माफ़ी मांग लूंगा। मैं फिर खिड़की के पास जाके खड़ा हो गया और ढलते सूरज को निहारता रहा।  मेरी तन्द्रा टूटी जब ठक की आवाज़ के साथ मेरा कैनवास मुझे देख के मुस्कुरा रहा था, मैंने भी जवाब में उसे एक मीठी मुस्कान  दी।  मैंने जल्दी जल्दी अपने ब्रश और पेंट पास रखे टेबल पर फैला दिया।  थोड़ी ही देर में मेरे हाथ मेरा कैनवास और मेरी आत्मा तीनो इन रंगों में डूबे हुए थे।
लगभग तीन घंटे कर मिहनत के बाद कैनवास पर एक खूबसूरत लड़की की तस्वीर उभर कर आई।  शिफॉन की हलके गुलाबी रंग की साड़ी में वो लड़की यक़ीनन कहर ढा रही थी।  बादलों के बीच बारिश में भीगी वो लड़की की छवि इस पेंटिग में जान भर रही थी।  घने काले बाल  उसके सीने को छूते हुए उसकी पतली गोरी तक गिर रहे थे और उन केशुओं के गुच्छे से ओस की बूंदो की तरह गिरता पानी अमृतधारा की तरह लग रखा था।  मृगनयनी सी उसकी आँखें के अंदर झांकते ही किसी के अंदर भी मृगतृष्णा जीवित हो उठेगी।  गुलाब की पंखुरी की तरह सोमरस से भरे उसके होंठ उसके मोतियों की तरह दाँतो के अंदर दबे थे।  शिफॉन की साड़ी बारिश में भीगी हुई उसके बदन से पूरी तरह चिपटी हुई थी और उसके शरीर केकी बनावट अच्छी तरह बयान कर रहे थे।  उसकी मांसल शरीर पर उसके गंठे और सुडौल वक्ष से उसकी साड़ी थोड़ी सी सरक गयी थी और उसके बाएं तरफ उस काले तिल की तरफ सबका आकर्षण लेने में पूरी तरह सक्षम थी।  ऐसे बड़े सुडौल वक्ष ,  रसभरे होंठो को  हर इसान ख़ुद के लिए   सुनियोजित करना चाहेगा  और उसके हाथ में पड़े strawberries की तरह उसका स्वाद लेना।  चाहेगा।   मैं खड़े होकर  बड़ी ही गंभीरता से अपनी पेंटिंग को निहार रहा था तभी मेरा नौकर  आया- मालिक बहुत शाम हुयी है खाना खाई लो लो।


 तभी उसकी नज़र मेरी पेंटिंग पर पड़ी और वो चिल्लाता हुआ नीचे दौड़ गया चलो भाई अब सामान पैक करने की तैयारी शुरू कर दो. कितनी बार हम मना किये की मत करो इह सब काम  हमरी कछु सुनते  हैं।  पिछले ६ महीने में ५ मकान बदली करे चुके हैं और लियो अब छठा।  उधर मेरा नौकर चिल्ला रहा था इधर मैं सोच रहा था की थक गया हूँ खुद से खुद ही भागते हुए. कितनी किताबें  पढ़ी , कितने दार्शनिक विचारधारा वाले लोगो की सानिध्य में रहा लेकिन आज भी मेरे अंदर का सामंती पुरुष एक औरत को एक सामान और भोगने वाली चीज़ समझता  और उससे ज़्यादा कुछ नहीं कुछ भी नहीं।  मेरे अंदर की निराशा के विषाद ने मुझे फिर से खुद में जकड लिया और मैं सोचने लगा की शायद अगली जगह घर बदलने से शायद मेरी सोच भी बदल जाए।  इतनी खूबसूरत पेंटिंग में अभी भी कुछ अधूरा सा है






1 comment:

  1. It is brilliant! loved reading every bit, every line. first paragraph is my favourite :-) and you nailed it with these lines “और आपको आपके पांव के नीचे आई माचिस की तीली से उस परफेक्ट वर्ड जिसकी आपको तलाश थी की चिंगारी सी जलती हुई सी दिखे। बेहद खूबसूरत अनुभूति होती है न तब। अपने अंदर भरे उस खालीपन को प्यार से भरने की अनुभूति।“ I couldn’t help smiling when i read this. :-) So true.

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